गीली लकड़ी सी सुलगती है औरत
न जले न बुझे धुँआ होती औरत
कब तक जले, कब तक सहे ये
ख़ुदा से सवाल ये करती औरत
हर ग़म सहे , कुछ भी न कहे
बच्चों को देख मुस्कराती औरत
घर उसका अपना नहीं कहीं भी
मगर नीव की ईंट बनती औरत
निशा अपने सपने भुला कर
सब के सपने सजा देती औरत
न जले न बुझे धुँआ होती औरत
कब तक जले, कब तक सहे ये
ख़ुदा से सवाल ये करती औरत
हर ग़म सहे , कुछ भी न कहे
बच्चों को देख मुस्कराती औरत
घर उसका अपना नहीं कहीं भी
मगर नीव की ईंट बनती औरत
निशा अपने सपने भुला कर
सब के सपने सजा देती औरत